एक नए सत्याग्रह की जरूरत है आज देश को
मेरे दादा जी सदाशिव लक्ष्मण राव सोमन, जिन्हें हम सब बाबासाहेब के नाम से जानते हैं, का 1946 में देहांत हो गया, भारत के स्वतंत्रता दिवस से कुछ ही माह पहले। उन्होंने देश को स्वराज्य दिलाने का सपना साकार करने के लिए दशकों संघर्ष किया। वह 1917 में उन स्वयंसेवकों के उस पहले बैच में शामिल थे जो महात्मा गांधी के आह्वान पर चंपारण आंदोलन में उतरे थे। उन्होंने भितिहरवा में पहला आश्रम बनाने में सहायता की। वहां कई माह रहकर उन्होंने स्कूल व शौचालय बनवाए। साथ ही गांधी जी और कस्तूरबा के सत्याग्रह में शामिल हुए। बाबासाहेब किसी भी तरह के भेदभाव के विरोधी थे। वे स्वयं से पहले सेवा को महत्त्व देते थे और वकालत के अपने कॅरियर का सदुपयोग उन्होंने विवादों का निपटारा करने के लिए किया न कि उन्हें बढ़ाने के लिए। चूंकि हम आजादी के 75 वर्षों का जश्न मना रहे हैं, इसलिए यह उचित समय है कि हम बाबासाहेब जैसे लाखों लोगों के जुनून, प्रतिबद्धता और बलिदानों को नमन करें। मैं कई बार सोचती हूं कि आज के भारत के बारे में बाबासाहेब क्या सोचते? क्या यह उनके सपनों का भारत है? विनोदी स्वभाव वाले बाबासाहेब उदारमना थे और वह यह देखकर खुश ही होते कि भारत की युवा पीढ़ी किस प्रकार रचनात्मक तरीकों से स्वयं को अभिव्यक्त कर रही है। कौन जाने, वह सोशल मीडिया पर भागीदारी कर अच्छी व शालीन बातों को प्रोत्साहित करते! वह निश्चित तौर पर इस बात पर गर्व करते कि भारत से गरीबी दूर हो रही है। जो गरीबी उन्होंने देखी, वह करीब-करीब अतीत की बात हो चली है और अब भी बहुत से लोगों को मदद की जरूरत है, राष्ट्र अंतिम पंक्ति के नागरिकों पर भी ध्यान दे रहा है, जैसा गांधी जी ने सिखाया था। मेरा मानना है वह भारत की सुदृढ़ सिविल सोसायटी पर भी गर्व करते जो जरूरतमन्दों तक पहुंच रही है और सरकार व बाजार दोनों को आईना दिखा रही है, जैसा कि वह अपने समय में करते थे। बाबासाहेब यह देख कर प्रसन्न होते की हम औपनिवेशिक छाया से निकल कर कितनी दूर चले आए हैं। वह भारत के अत्याधुनिक डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर के आविष्कार की सराहना करते। वह इस बात को समझते कि इससे नए भारत के आर्थिक लोकतंत्र की नींव तैयार होगी। अगर उन्हें थोड़ा सा भी लगता कि ये सांस्कृतिक पुनरुत्थान एकतरफा है और बहुसंख्यक समुदाय विभिन्न पंथ, संस्कृति के वर्गों को साथ लेकर चलने की नैतिक जिम्मेदारी नहीं निभा रहा है तो वह इसके लिए आवाज उठाते। संभवत: अगर हम सब अगस्त 2022 में देश के लिए अपने पूर्वजों के सपनों को फिर से याद करें, हम स्वयं आने वाली पीढ़ियों के लिए बेहतर पूर्वज बन सकेंगे, जो उनके भविष्य के लिए आशाओं के द्वार खोलेगा। क्या हम ऐसे भविष्य की कल्पना कर सकते हैं, जहां हमारे बच्चे व पोते-पोतियां व अन्य सभी इस धरती पर मानवीय क्षमता के उच्चतम स्तर की उपलब्धियां हासिल कर सकें। क्या यह हमारा नया सत्याग्रह बन सकता है? ऐसा भविष्य मिलना आसान नहीं है, हर नागरिक को इसके लिए काम करना होगा। अगर आज बाबासाहेब होते तो वह इस कल्पना को यथार्थ में बदलने का निरंतर प्रयास करते। हम सबको भी यही करना चाहिए। जय हिंद!