Back to resources

सजा बदला लेने को नहीं, सुधार के लिए दी जाए

Access to Justice | Jul 27, 2019

जरूरत… सभी नागरिक उस सिस्टम को समझें जो अपराध और सजा को लेकर कानून स्थापित करता है

पिछले साल विजय माल्या के वकील ने इंग्लैंड की सरकार से आर्थर रोड जेल की भयावह स्थिति पर विचार करने को कहा था। वकील ने उस नियम का हवाला दिया था, जिसमें प्रत्यर्पित किए जाने वाले व्यक्ति के मानवाधिकारों का आकलन करना होता है। हाल ही में पुणे की यरवदा जेल में फैसले का इंतजार कर रहे वरवर राव की पत्नी ने महाराष्ट्र के राज्यपाल से जेल की भयानक परिस्थितियों की सुध लेने की गुहार लगाई थी। ये दो हाई प्रोफाइल केस हैं। एक बिज़नेसमैन और दूसरा क्रांतिकारी लेखक। ये केस मुझे 1982 के एक ऐसे ही मामले की याद दिलाते हैं। अमेरिका में बतौर युवा पत्रकार मैं एक ताकतवर राजनेता के बेटे आदिल शहरयार का इंटरव्यू लेने गई थी। जिन्हें आगजनी के लिए मियामी के हाई सिक्योरिटी जेल में बंद किया गया था। जेल की सुविधाओं को देखकर मैं हैरान थी। साफ-सुथरे बड़े से उस जेल में खेलकूद और मनोरंजन की सुविधाएं तक थीं। मुझे याद है आदिल ने हंसते हुए कहा था, “यह जेल नहीं कंट्री क्लब है!’ इन्हीं कड़ियों को जोड़कर मैं भारतीय जेलों की स्थिति के बारे में सोच रही हूं, जिन्हें लेकर कई भयानक रिपोर्ट्स हैं। वहां जाए बिना भी हम सब जानते हैं कि पिंजड़े जैसे ये जेल अपनी क्षमता से ज्यादा कैदियों को ढो रहे हैं। वहां कैदियों को न साफ-सफाई मिलती है, न ही सोने लायक बिस्तर। कैद में उनके साथ हिंसा होती है, यहां तक कि दुष्कर्म भी। ये एेसे निष्ठुर हालात हैं, जिनसे भारत में कैदी और विचाराधीन दोनों का सामना होता है। सच तो यह है कि हमारी जेलों के बंदियों में अधिकांश यही विचाराधीन होते हैं, जिन्हें गिरफ्तार किया गया है, लेकिन अपराध साबित नहीं हुआ। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो 2016 के मुताबिक 1400 जेलों में बंद 4.33 लाख बंदियों में से 67% से ज्यादा विचाराधीन हैं। कई बंदियों को जितने दिन जेल में रहना पड़ता है, यदि उनका जुर्म साबित भी हो जाता, तब भी उन्हें इससे कम दिन सजा काटनी पड़ती। जेलों की भीड़ कम करने की जद्दोजहद और बेगुनाह विचाराधीन कैदियों की रिहाई के बाद भी यह अन्याय अनवरत जारी है।

क्या ये बातें हम आम नागरिकों को किसी भी तरह से परेशान करती है? आखिरकार हम सभी हर दम कोशिश करते हैं कि नियम-कायदों का पालन करें। कम से कम उन नियमों का, जो हमें पता हैं। क्योंकि हमें या हमारे पहचान वाले को तो संभवत: कभी जेल होने ही नहीं वाली। शायद इस पर दोबारा सोचना होगा। भारत का न्यायिक ढांचा और उसके कानून अभी भी विकसित हो रहे हंै। हमारे कई कानून औपनिवेशिक काल के हैं और अभी भी सुधरने का इंतजार कर रहे हैं। उदाहरण के लिए 1894 कैदी अधिनियम। कई कानून सिर्फ शक के आधार पर, बिना जमानत गिरफ्तारी की अनुमति देते हंै। दहेज के मामले, सेंधमारी, आत्महत्या के लिए उकसाने, आईपीसी की धारा 399 या 402 जैसे किसी मामले में आरोप लगने पर किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता है। किसी को 1860 के महात्मा गांधी जैसे देशभक्तों के खिलाफ अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किए गए कानून के तहत देशद्रोह के मामले में भी गिरफ्तार किया जा सकता है। आज़ादी के बाद बनी किसी भी सरकार ने इस कानून को हटाने की कवायद नहीं की। 2014 से 2016 के बीच 179 लोगों को देशद्रोह के 112 मामलों में गिरफ्तार किया गया, जबकि केवल 2 केस में दोष साबित हुआ। कई बार युवा सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हुए अलग-अलग कानून के अंतर्गत फंस सकते हैं। 2017-18 में देशभर में 50 लोगों को सोशल मीडिया पोस्ट के कारण गिरफ्तार किया गया। इनमें से कई ने छह महीने जेल में बिताए, कुछ एक महीने कैद रहे, जबकि बाकी को हफ्तेभर में रिहा कर दिया गया, यह सोचने वाली बात है।

आज नई तकनीक, जैसे कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, फेस रिकग्निशन का इस्तेमाल पुलिस अपराधियों को पकड़ने के लिए करने जा रही है। जो अब भी पूरी तरह विकसित नहीं है, जिसके चलते गलत लोगों की गिरफ्तारी भी हो सकती है। तो इस अकल्पनीय पर भी विचार कीजिए। सोचिए, कोई बेगुनाह नागरिक, जो आप और हम खुद को समझते हैं, जिन्हें हम सुरक्षित मानते हैं, शायद सुरक्षित नहीं हैं। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि सभी नागरिक उस सिस्टम को समझें जो अपराध और सजा को लेकर कानून बनाता है। हमारे नए सांसदों की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि वह नए कानून लिखें और पुरानों को संशोधित करते रहें। बतौर नागरिक हमें, उन्हें इसी के लिए जिम्मेदार ठहराना चाहिए, क्योंकि अच्छे कानून इंजन की तरह हंै, जिनकी बदौलत समाज आसान और सुलभ तरीके से चलता है। आखिर इस बेतरतीब सिस्टम में यदि हमें गैरकानूनी तौर पर जेल हो जाती है, क्या तभी हमें जेलों की स्थितियों पर चिंता होगी? इसी संदर्भ में खुली जेलों के रूप में एक बेहद रोचक प्रयोग देश में चल रहा है, जिसमें राजस्थान अग्रणी है। वहां 1963 से सांगानेर में एक खुली जेल है, जहां अभी भी 400 कैदी रहते हैं। भारत में 63 खुली जेलें हैं, जबकि 30 अकेले राजस्थान में। इन खुली जेलों में दीवारें, सलाखें और ताले नहीं होते। वो कैदी जो कुछ कड़ी शर्तंे पूरी करते हैं उन्हें यहां रखा जा सकता है। उन्हें बस दिन में दो बार हाजिरी देनी होती है। उन्हें आजादी का इस्तेमाल रोजगार के लिए करना होता है। कैदियों के साथ उनके परिजन भी यहां रह सकते हैं। खुली जेल सफलता की कहानी है। वहां मानव गरिमा को जगह दी जाती है। यहां दोबारा गुनाह होने की आशंका 1% है। अब बाकी राज्य भी ऐसी जेल चाहते हैं।

स्मिता चक्रवर्ती 15 सालों से खुली जेलों पर काम कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उनके सुझावों पर हर जिले में खुली जेल बनाने को कहा है। यह एक अच्छी खबर है। दुनिया के महान विचारक सदियों से कहते आए हैं, कि किसी अपराध की सजा बदला लेने के लिए नहीं बल्कि पुनर्वास के लिए होनी चाहिए। गांधी ने भी कहा है, अपराध से घृणा कीजिए, अपराधी से नहीं। यदि सिस्टम द्वारा हिंसा का जवाब हिंसा से दिया जाएगा तो यह कभी खत्म नहीं होगी। यूं भी कोई अपराधी बनकर तो पैदा नहीं होता। न्याय को केवल पीड़ित के लिए नहीं बल्कि अपराधी के लिए भी काम करना होगा। हम आप सभी को इस पर सोचना होगा। न्याय बेहद जरूरी विषय है जिसे सिर्फ सरकार और कोर्ट पर छोड़ देना समाज के लिए हितकारी नहीं होगा।

 

Image

Newspaper Image

Gujarati Newspaper Image

Marathi Newspaper Image

More like this

Access to Justice

Fast Track Justice Needed

ET Exclusive with Yasmin Premji, Rohini Nilekani, Sudha Murthy “Fast Track justice needed”   Transcript 00:00 Speaker 1: By the time when India Inc. Is struggling to rope-in more women in the workforce and also ensure their safety, the first wives of the industry, Yathleen Praymti, Sutha Munthi, and Drogani Lilicani, spoke exclusively to Ithinaust […]
Dec 27, 2012 |

Strategic Philanthropy  |  Access to Justice

Rohini Nilekani | Casual Conversations with Citizens

This is an edited version of Rohini Nilekani’s conversation with Gopal Sankaranarayanan, as part of the Casual Conversations with Citizens series. Rohini shares her experiences of life and encounters with the law, rights, and most importantly, her ideas of justice. I grew up in a fairly middle class household in Mumbai, and my parents wanted […]
May 31, 2020 |

Access to Justice

Corporates Should Support the Rule of Law

The time has come to align self-interest and public interest in support of the rule of law and constitutional values. I have often talked about the continuum of sarkaar, samaaj, and bazaar, and why, for a successful society, these three sectors must work together in a fine balance. Ideally, sarkaar, or the state, should not […]
Jan 16, 2020 | Article

Strategic Philanthropy  |  Access to Justice

Samaaj and Bazaar: Congruence over Divergence

This is an edited version of Rohini Nilekani’s keynote talk on Samaaj and Bazaar: Congruence over Divergence at Dasra Philanthropy Week 2019 in Mumbai. We often set up Civil Society (Samaaj) and Markets (Bazaar) as opposing binaries. In this talk, Rohini proposes that they have more in common and more to gain, collectively, in collaborating […]
Mar 8, 2019 | Speech