संविधान का वादा पूरा करने का अवसर
अधिकार… हर व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्वतंत्रता और न्याय की सुरक्षा ससम्मान मिले
मैं कई बार सरकार, समाज और बाजार की निरंतरता के बारे में बात करती हूं। एक सफल समाज के लिए क्याें इन तीनों का सामंजस्य बनाकर साथ काम करना जरूरी है। आदर्श तौर पर सरकार या राज्य को अपने पास अत्यधिक राज-सत्ता नहीं रखना चाहिए। बाजार को कानून और सार्वजनिक संसाधनों के उपयोग से जुड़े नियमों का अनादर नहीं करना चाहिए। न ही समाज के सतर्क लोगों को कानून अपने हाथ में लेना चाहिए। इसके लिए जागरुकता और सभी नागरिकों की भागीदारी बेहद जरूरी है। आखिरकार हम नागरिक पहले हैं, हमारी पहली पहचान सरकार की प्रजा या फिर बाजार के उपभोक्ता की नहीं है। हमें देखना होगा कि एक नागरिक की तरह क्या हम अच्छा समाज तैयार करने में मदद कर रहे हैं?
समाज और सरकार, बाजार और सरकार और तो और समाज और बाजार के कई हित एक-दूसरे से जुड़े हैं। इस लेख के जरिए हम समाज और बाजार के बीच हितों के सामंजस्य की पड़ताल करेंगे, जिसकी शुरुआत कानून कायम करने से होती है। हम सभी चाहते हैं और यह सभी के लिए जरूरी भी है कि कानून व्यवस्था को बरकरार रखा जाए। यदि 300 साल पहले कानूनी व्यवस्था के जरिए लिमिटेड लाइबिलिटी कंपनी नहीं बनाई जाती तो वास्तव में बाजार या फिर जिसे हम आधुनिक कॉर्पोरेशन के रूप में जानते हैं, वह कभी अस्तित्व में ही नहीं आता। इस व्यवस्था ने सदियों इनोवेशन को पनपने का मौका दिया और असफलताओं के असर को भी कम किया है। जहां इनोवेशन है वहां असफलताएं भी होती हैं। इसलिए रूल ऑफ लॉ के मुताबिक कंपनियां बिना बर्बाद हुए, असफल भी हो सकती हैं। अपने हितों की सुरक्षा के लिए कानून बनाए रखने में कॉर्पोरेशन की बड़ी हिस्सेदारी है। कॉन्ट्रैक्ट्स लागू करवाना, प्रॉपर्टी की सुरक्षा और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बनाए रखना बेहद जरूरी है, वरना वह काम चला ही नहीं सकते। इससेे भी आगे उनके लिए जरूरी है कि बतौर समाज कानून व्यवस्था को स्वीकार किया जाए। क्योंकि कोई भी व्यवसाय सामाजिक स्थिरता के दायरे के बाहर सफल नहीं हो सकता।
इसलिए सामाजिक संस्थाएं और व्यवसाय के बीच अनुमान से कहीं ज्यादा समानताएं हैं। हां, कुछ मामलों में सामाजिक संस्थानों की स्थिति व्यवसाय से जुड़े हितों के विरोध में होती है, जब वह हित असलियत में गलत तरीके से लागू किए जाएं। उदाहरण के लिए जैसे पानी, जमीन या फिर पर्यावरण से जुड़े मुद्दे जैसे प्रदूषण के मामले में सामाजिक संस्थाएं और व्यवसाय एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े होते हैं। पर दोनोें के लिए जो जरूरी चिंता होती है वह है सरकारी नीतियों को नियंत्रण में रखना। दुनियाभर में सरकारी ताकतें एकजुट होती रहती हैं। व्यवसाय और सामाजिक संस्थाओं दोनों के लिए फायदेमंद होगा यदि वह यह सुनिश्चित करें कि राज्य अपनी शक्ति का दुरुपयोग न कर पाएं। कॉर्पोरेशन को अपना व्यवसाय चलाने के लिए सरकार की अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ता है। यदि समाज और बाजार के एकत्रीकरण को समझकर उसके लिए काम किया जाए तो वह सरकार पर पाबंदियां लगाने में मदद करता है। उदाहरण के लिए एनजीओ और बिजनेस कॉर्पोरेशन एक साथ या फिर अलग-अलग सरकार से लचर कानून व्यवस्था को लेकर अपील कर सकते हैं। सीएसआर का पालन न करने पर उसे अपराध घोषित करने के प्रपोजल से समाज और बाजार दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता था। दोनों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई और इस प्रपोजल को वापस ले लिया गया। हम सभी को अच्छे कानूनों की जरूरत है, साथ ही जरूरत है स्वतंत्र, निष्पक्ष और कुशल न्यायपालिका की ताकि कानूनों की संवैधानिकता का पता लगाया जा सके। हम सभी को न्याय प्रणाली तक समान पहुंच की आवश्यकता है। हमें प्रभावी सार्वजनिक संस्थानों की भी जरूरत है जो कानून व्यवस्था बनाए रखने में मददगार हों। यही तरीका होगा बाजार के सशक्तीकरण और नागरिकों के अधिकारों को मजबूत करने का।
समाज का हित कानून में ही है, लेकिन उस तक पहुंच के मसले जटिल हैं, खासकर गरीबों के लिए। समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले सिविल सोसायटी ऑर्गेनाइजेशन (सीएसओ) ज्यादातर अधिकारों और आजादियों के जुनून और प्रतिबद्धता के बलबूते चलते हैं। अलग-थलग छूटे लोगों के लिए बेहतर संस्थान तैयार करने और कैम्पेन चलाने से कई बार वह निजी जोखिम लेकर सरकार और कॉर्पोरेशन के खिलाफ भी चले जाते हैं। सिविल सोसायटी को यह सीखना और प्रसारित करना होगा कि इस तरह के काम से बिजनेस को लंबे समय में बेहतर मुनाफा होगा। क्योंकि बाजार यह काम नहीं कर सकता। कानून व्यवस्था बनाए रखने से जुड़े सामाजिक संस्थानों के काम से कॉर्पोरेशन को फायदा जरूर मिलता है। लेकिन वह खुद राजनीति से जुड़े काम नहीं कर सकते। वरना उन्हें सरकार की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है।
लेकिन वह जो कर रहे हैं उससे कहीं ज्यादा तो कर ही सकते हैं। जिन सिविल सोसायटी इंस्टीट्यूशन्स पर वह भरोसा करते हैं और जिनके साथ उनके बेहतर रिश्ते हैं, उन्हें प्रोजेक्ट बेस्ड फंडिंग की जगह कोर इंस्टीट्यूशनल सपोर्ट देना चाहिए। यदि वह इतना भर कर देते हैं तो यह अधिकारों और बहिष्करण के मुद्दों पर सामाजिक संस्थानों की क्षमता को मजबूत करेगा। सरकार और सिविल सोसायटी, बिजनेस और सिविल सोसायटी या फिर सरकार और बिजनेस के हमेशा आमने-सामने होने की जरूरत नहीं है। वह अनिवार्य तौर पर एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं हो सकते। समाज तभी सफल होता है जब वह बाकी तीन से अपनी तनातनी कम कर लेता है और समाधान तैयार करने लगता है। यही वक्त है जब बिजनेस और सामाजिक संस्थाएं एक दूसरे को ज्यादा जाने, भरोसा रखें और साथ में बढ़े।
गणतंत्र की 70 वीं सालगिरह तो आ गई पर हमारा संविधान में किया वादा अभी पूरा नहीं हुआ। इस नए दशक की शुरुआत पर अच्छा मौका है कि हम एक बार फिर खुद को संवैधानिक मूल्यों से जोड़ें। तो क्यों न हम ध्यान रखें उस लक्ष्य और उद्देश्य को। कि, देश के हर व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता और न्याय की सुरक्षा ससम्मान मिले।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)